कब करें मंत्र साधना

सूर्योदय से प्राय: दो घंटे पहले ब्रह्ममूहुर्त्त साधक की सर्वाग उन्नति के लिये शुभ होता है। उस समय सोते रहना स्वास्थ्य व आर्थिक समृद्धि के विकास के लिये अशुभ है। अत: ब्रह्ममुहूर्त्त में उठकर अपने दोनों हाथों को देखें तथा भावना करें-
कराग्रे वसते लक्ष्मी, करमध्ये सरस्वती। करमूले स्थितो ब्रह्मा, प्रभाते करदर्शनम्।।
स्नान कर गणेश, सरस्वती, लक्ष्मी, सूर्य, तुलसी, गौ, गुरु, माता-पिता व वृद्धजनों को प्रणाम करें।
वस्त्र-
मुख्य रूप से पूजा-जाप के लिये दो वस्त्र-एक अद्योवस्त्र धोती तथा ऊर्ध्ववस्त्र दुप्पटा पहनने की शास्त्रों में आज्ञा है। वस्त्र रेशमी व ऊनी हो, तो उत्तम है। सिले वस्त्र, फटे-हुए, नील या मांडी लगे हुए वस्त्रों का त्याग करें। नया वस्त्र हो तो उसे एक बार धोकर ही पहनना चाहिये। सफेद वस्त्र शांति व उत्तम कर्मों के लिये, पीले वस्त्र आकर्षण के लिये लाल वस्त्र देवी की उपासना व शक्ति प्राप्ति के लिये शुभ है। पाजामा व तंग पैंट पहनकर जप करना उचित नहीं है।
जप का स्थान-
पूजा जाप के लिये एकांत, पवित्र व शुद्ध वायु वाला पवित्र स्थान शुभ है। तंग स्थान, अधिक शोर, दुर्गंधयुक्ता स्थान में मन की स्थिरता नहीं रहती। अत: ऐसे स्थान को जाप के लिये नहीं चुनना चाहिये।
दिशा-
मन तथा इंद्रियों को प्रसन्न व स्थिर रखने के लेय पूर्व दिशा की ओर मुख करके जाप या पाठ करें। शुवपुराण में कहा गया है कि पूर्व में मुख करके जप व ध्यान करने से वशीकरण, उत्तर में शांति प्राप्ति, पश्चिम में संपत्ति लाभ व दक्षिण में अभिचार मारण आदि क्रूर कर्म में लाभ होता है। पूर्व दिशा साधक के लिये शुभ है। देवता व साधक के बीच पूर्व दिशा उत्तम है। वैसे भी सूर्य, अग्नि, ब्राह्मण, देवता व श्रेष्ठ पुरुषों की उपस्थिति में उनकी ओर पीठ करके बैठना उचित नहीं है।
आसन-
योग शास्त्र में नर्देश दिया गया है कि ‘स्थिर सुखमासनम्’ अर्थात् आसन वही उत्तम है। जिसमें स्थिर सुख हो इसके लिये स्वस्तिकासन, पद्मासन, वीरासन व सिद्धासन प्रसिद्ध है। स्वस्तिकासन सबसे सरल है। जिसमें हम पालथी मारकर बैठते हैं। मन की चंचलता को शांत करने के लिये कुशासन, कंबल, मृगचर्म उपयोग में आते हैं। पत्थर के आसन को रोगकारक माना गया है।
‘वस्त्रासने तु दारिद्रयं पाषाणे व्याधीपीडनम्’।
आचमन-
जिस प्रकार स्नानादि द्वारा बाहरी शुद्धि अनिवार्य है। उसी प्रकार अन्तकरण की शुद्धि के लिये आचमन आवश्यक है।
ऊँ केशवाय नम: स्वाहा।
ऊँ नारायणाय नम: स्वाहा।
ऊँ माधवाय नम: स्वाहा।
इन तीन मंत्रों से तीन बार आचमन करे तथा बाद में ‘ऊँ गोविंदाय नम:’ बोलकर हाथ धो लें।
पवित्रीकरण-
बायें हाथ में जल लेकर कुशा से मस्तक पर जल छिड़ककर हुए निम्न मंत्र बोलें-
ऊँ अपवित्र: पवित्रों वा सर्वावस्थां गतो-पि वा। य: स्मरेत् पुण्डरी काक्षं स ब्राह्राभ्यंतर: शुचि:।।
निम्न मंत्र बोलकर आसन पर जल छिड़कर दायें हाथ से उसका स्पर्श करें।
ऊँ पृथ्वी! त्वचा घृता लोकादेवि! त्वं विष्णुना घृता।। त्वं व धारय मां देवि। पवित्रं कुरू चासनम्।।
प्राणायाम्-
जिस प्रकार स्नान करने से शरीर के बाहरी अंगों की शुद्धि होती है, उसी प्रकार प्राणायाम करने से भीतरी अंगों की शुद्धि होती है। श्वांस-प्राणायाम फफेड़ों और छाती को फैलाकर मजबूत बनाता है और रक्तगत दोषों को दूर करके उसे शुद्ध करता है। सहनशीलता बढ़ती है और अंग पुष्ट होते हैं।nश्वांस रोकने से वायु की अनेक शक्तियां शरीर में प्रविष्ट होकर क्षय, प्रमेह, रक्तचाप जैसे रोगों को दूर करती हैं। प्राणायाम की सामान्य विधि यह है कि पद्मासन मैं बैठकर रीढ़ को सीधाकर दाहिने हाथ के अंगूठे से नासिका में दाहिने छिद्र को बंद कर बायें छिद्र से धीरे-धीरे श्वांस खींचे (पूरक)। फिर दाहिने हाथ की कनिष्ठका व अनामिका से बांया छिद्र बंद कर दें द्धकुंभकऋ। बाद में अंगूठे को हटाकर श्वांस धीरे-धीरे छोड़े (रेचक)। इस प्रकार पूरक, कुंभक व रेचक के समय मंत्र जाप करने से शुभता बढ़ जाती है। प्राणायाम में जप करने से मनुष्य की क्रियाशक्ति व ज्ञानशक्ति बढ़ जाती है। बुद्धि निर्मल होकर सत् कार्यों में लगती है।
संकल्प-
शिखा-बंधन, यज्ञोपवीत भस्म-धारण व तिलक धारण, पूजन, न्यास व ध्यान आवश्यक अंग हैं।
जप की प्रक्रिया-
मंत्र के अर्थ की भावना बनाकर एकाग्रता पूर्वक जाप मंत्र के अर्थ की भावना बनाकर एकाग्रता पूर्वक जाप करना चाहिये।
शरीर के षटचक्र-
1 मूलाधार (गुदा व लिंग के मध्य में)
2 स्वाधिष्ठान (लिंग के ऊप का भाग)
3 मणिपुर (नाभि-स्थान)
4 अनाहत (हृदय प्रदेश)
5 विशुद्ध (कण्ठ स्थल)
6 आज्ञाचक्र (भोंहो के मध्य का भाग) में से किसी एक चक्र में अन्त:दृष्टि रखते हुए जाप करने से शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है।
माला विचार-
108 मनकों की माला, रूद्राक्ष, शंख, कमल गट्टे, स्फटिक, तुलसी, मूंगे की माला अक्षय फल देने वाली होती हैं।
पुरश्चरण पद्धति-
‘पुर’ और ‘चरण’ शब्दों से मिलकर बना पुरश्चरण है। इसका अर्थ है पूर्वाचरण। अर्थात् मंत्रल की सिद्धि के लिये पूर्व भूमिका के रूप में किया जाने वाला कार्य। ‘पुरश्चरण’ के पांच अंग होते हैं।– जाप, होम, तर्पण, मार्जन व ब्राह्मण भोजन।
माला विचार का संस्कार-
जप करने के लिये जिस माला से जाप करना है उसका संस्कार व शुद्धि करता अनिवार्य है। सर्वप्रथम पंचगव्य गाय का दूध, दही, घी गोबर और गोमूत्र को एक पात्रbमें मिलाकर उसमें थोड़ी सी कुशा डाल दें। फिर अपने गायत्री मंत्र से माला को हिलायें। पीपल के पत्तों पर माला को रखकर गंगा जल से स्नान करायें। इसके पश्चात् माला को हाथ में लेकर उसमें निम्न मातृका- वर्णों का न्यास करें
ऊँ अं आं इं ईं उं ऊं ऋं लं लृं लं ए ऐं ओं औं अं अ: कं खं गं घं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं स् हं क्षं ऊँ।
निम्न मंत्रों को बोलते हुए माला की पूजा करें-
ऊँ सधेजातं प्रपधामि सघोजाताय वै नमो नम:।
ऊँ सधेजातं प्रपधामि सघोजाताय वै नमो नम:।
भवे भवे नातिभवे भवस्य माँ भवोद्भवाय नम:।
ऊँ सर्व शक्ति स्वरूपिण्यै श्री मालायै नम: स्नान समर्पयामि।
ऊँ वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नम: रुद्राक्ष नम: कालाप नम: कलविकरणाय नमो बलविकरणाम नमो बलाय नम: बलप्रमभनाथ नम: सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मनाय नम:।।
ऊँ सर्व शक्तिस्वरूपिण्यै श्रीमालाये नम: चन्दंन समर्पयामि।
ऊँ अधोरेभ्यो*थ घोरेभ्यो घोरघोर तरेभ्य:।
सर्वेभ्य, सर्व शर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्य: स्त्र ऊँ सर्वशक्ति स्वरूपिण्यै श्री मालायै नम: अक्षतान् समर्पयामि।
ऊँ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि। तन्नो रुद्र: प्रचोंदयात्स्त्र
ऊँ सर्वशक्ति स्वरूपिण्यै श्री मालयै नम: पुष्पाणि समर्पयामि।
इसके पश्चात् ‘वामदेवाय नम:’ वाल पूरा मंत्र बोलकर माला को धूपित करें, फिर निम्न मंत्र बोलकर माला को अभिमन्त्रित करें-
ऊँ ईशान: सर्वविद्या नामईश्वर: सर्वभूतानाम्। ब्रह्माधिपति ब्रह्मणोंSधिपति ब्रह्मा शिवो में अस्तु सदाशिवोम्।।
पुन: ‘अधोरेभ्योभ घोरेभ्य’ इत्यादि मंत्र बोलकर माला के सुमेस को अभिमंत्रित करें।
ऊँ महामाये महाकाले सर्वशक्ति-स्वरूपिणि। चतुर्वगु स्तवपि न्यस्तस्तस्मान् में सिद्धिदा भव।
ऊँ अविघ्नं कुरू माले त्वगृहणामि दक्षिण करे। जपकाले च सिद्धयर्थ प्रसीद मम सिद्धये।।
ऊँ त्वं माले! सर्वदेवाना प्रीतिदा शुभदा भव। शिवं कुरुष्व में भद्रं यशो वीर्यञ्य देहि में।।

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