बलि देना,बलि चढाना या बलिदान -:

बलिदान को प्रमुख उपचार माना गया है जो अपने इष्टदेव की पूजा-अर्चना के कुल सोलह उपचारमे से एक है। ऐसी मान्यता है कि पूजा की समाप्ति पर यदि आराधक या साधक ने पशु बलिदान नहीं दिया तो पूजा निष्फल सिद्ध होगी, मनचाहा फल नही मिलता ।
आइए अब तनिक गहरे में उतरें........
बलिदान का बडा व्यापक अर्थ है । वेदों में बलिदान के महत्त्व पर बल दिया गया है । किंतु कालांतर में न जाने कैसे बलिदान का अर्थ संकुचित हो गया । यह दिग्भ्रमित धारणा जड पकड गई कि पशुबलि के बिना आराधक की आराधना अधूरी है । ऐसा कैसे संभव हो सकता है कि जिन देवताओं को कल्याणकारी और करुणामय माना जाता है, वे जीव की हत्या से ही प्रसन्न हो सकेंगे । हाँ, वामाचार व तंत्र साधना आदि में पशुबलि का विधान जरूर है, किंतु वह भी केवल विशेष अवसरों पर । सात्विक पूजा में पशुबलि सर्वथा निषिद्ध है । महाकाल संहिता में स्पष्ट लिखा गया है कि जो आराधक सात्विक आराधना करता है, वह बलिदान के लिए भूल से भी पशुहत्या नहीं करता । वह ईख, कूष्मांड (सीताफल), नीबू व अन्य वन्यफलों की बलि देता है या खीरपिंड, आटे अथवा चावल से पशु बनाकर बलि देता है । सात्विक आराधना स्वार्थसिद्धि के लिए नहीं की जाती,
अतः सच्चा आराधक जीव हत्या की कल्पना तक नहीं करता । वह आराध्य देवता के चरणों में स्वयं को समर्पित कर देता है । अपना सर्वस्व बलिदान करने वाला सबकुछ भूलकर आराध्य देवता में लीन हो जाता है और उसी के रूप को प्राप्त होता है । स्वयं का समर्पण करने वाला आत्मबलिदानी कहलाता है । विद्वानों ने आत्मबलिदान को सर्वतोत्कृष्ट बलिदान बताया है । ऐसा आराधक शरीर के बोध से मुक्त होकर आत्मा को परमात्मा से जोड देता है । आत्मबलिदानी आराधक का मोह, माया, काम व क्रोध से सदैव के लिए नाता टूट जाता है । उसे स्वात्मा और परमात्मा में कोई भेद दिखाई नहीं देता। आत्मबलिदान आराधक से बहुत संयम, एकाग्रता और केंद्रीयता की अपेक्षा रखता है । आत्मबलिदान निरंतर अभ्यास और तीव्र इच्छशक्ति से भी संभव है । जब तक आराधक के मन में स्वार्पण का भाव जाग्रत न हो, तब तक आत्मबलिदान के प्रति वह प्रेरित न हो सकेगा । अतः आत्मबलिदान के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए आराधक को पहले शरीर व आत्मा का नाश करने वाले छह शत्रुओं का वध करके इनकी बलि देनी चाहिए । ये शत्रु हैं: काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य । य द्वितीय कोटि का बलिदान कहलाता है । इसमें आराधक आराध्य देवता की पूजा के बाद काम, क्रोध आदि भावों का नाश करने का संकल्प करता है इन छह शत्रुओं का वध करना और उनकी बलि सहज नहीं है । इसके लिए आराधक का दृढनिश्चयी होना अत्यावश्यक है। अतः उसे पहले तृतीय कोटि के बलिदान का सहारा लेना चाहिए । व्यक्ति का चित्त चलायमान है । वह पलक झपकते ही किसी पर भी आसक्त हो जाता है ।
किसी को खास व्यंजनों का शौक है, कोई मद्य सेवन के बिना रह नहीं पाता, किसी में मैथुन और मांसाहार की कामना सतत सिर उठाती है । यही इच्छाएं और कामनाएं काम-क्रोधादि छह शत्रुओं की उत्पत्ति के कारण हैं। अतः शत्रु पैदा ही न हो, इसके लिए आराधक इन इच्छाओं व कामनाओं को चित्त में घर न करने दें। सच तो यह है कि इच्छाएं ही मनुष्य के पतन का मूल कारण हैं । इच्छाएं कभी समाप्त नहीं होतीं । एक इच्छा की पूर्ति के बाद दूसरी इच्छा उत्पन्न होती है । मनुष्य आजीवन इच्छाओं का पीछा करता है और जीवन की सार्थकता से परिचित नहीं हो पाता ।
जिस मनुष्य का लक्ष्य केवल इच्छापूर्ति तक सीमित है, वही अपने छह शत्रूओं से घिर जाता है । इच्छा का अर्थ है भोग विलास का जीवन व्यतीत करना । वह दूसरों की सुख-सुविधा से मात्सर्य (ईर्ष्या) करता है । अपने मद और अहंकार के आगे किसी को महत्त्व नहीं नहीं देता । सदैव मोह और लोभग्रस्त होता है । उसकी इच्छा के आडे कोई आ जाए तो क्रोध से उसका सारा शरीर कांपने लगता है ।
कामाधिक्य उसे जीणशीर्ण करता है । मरण शैया पर उसे भान होता है कि उसने मूल्यवान जीवन व्यर्थ में ही गंवा दिया । छह शत्रुओं को स्वयं पर आक्रमण करने का अवसर व्यक्ति स्वयं देता है । इसका दोषी कोई अन्य नहीं होता । भोगविलास के प्रति आकृष्ट होना व्यक्ति की स्वाभाविक प्रवृत्ति है । यदि किसी की भोगविलास में रुचि नहीं है तो कोई उसे बलात उसमें प्रवृत्त नहीं कर सकता ।
भोगविलासी जीवन व्यक्ति का ईहलोक तो बिगाडता ही है, परलोक संवारने का अवसर भी गंवा देता है । वह अंत में पछतावे की सांस छोडकर मरता है । यही कारण है कि वेदों आदि ग्रंथों,नीति शास्त्रों और स्मृतियों में बार-बार प्रवृत्तियों से निवृत्त होने का आग्रह किया गया है । निवृत्तिस्तु महाफला का अर्थ है कि व्यक्ति प्रवृत्तियों से मुक्त होकर महाफलों को प्राप्त होता है । निवृत्तियां उसे मोक्ष प्रदान करती हैं और उसका परलोक संवारती हैं ।
निवृत्ति का सहज उपाय यही है कि व्यक्ति अपनी इच्छा का परित्याग करे । यह असंभाव्य नहीं । बस, व्यक्ति बलिदान के उपचार का विधिवत पालन करे । आराध्य देवता की पूजा करने के बाद वह प्रतिदिन अपनी एक इच्छा की बलि चढाए । दृढमना आराधक अंततः निवृत्त होने में सफल होता है । यदि वह मदिरापान से निवृत्त होना चाहता है तो वह पूजा के बाद आराध्य देवता के सम्मुख इससे मुक्त होने का दृढता से संकल्प करता है । जब तक वह इसमें सफल नहीं हो जाता, अपने संकल्प को दोहराता रहता है। एक इच्छा से निवृत्ति के बाद वह मांसाहार पर अंकुश लगानें का प्रयास करता है ।
काम-क्रोध आदि से निवृत्ति के सुखद प्रभाव से आराधक का आत्मबल बढता है । उसे स्वयं से मोह नहीं रह जाता । वह शारीरिक बोध से मुक्त होकर आत्मस्वरूप हो जाता है । उसे ज्ञात है कि इस आत्मा पर भी उसका अधिकार नहीं है। अतःवह आराध्य देवता को आत्मबलिदान देकर परमात्मा से साक्षात्कार करता है । उसे लगता ही नहीं कि व्यक्ति या परमात्मा की सत्ताएं पृथक हैं । शरीर बोध से मुक्त होते ही वह परमात्मा स्वरूप धारण करता है । पूजा के बाद बलिदान देने का वास्तविक अर्थ आत्मबलिदान है,पशुबलि नहीं । सात्विक पूजा व यज्ञ आदि में पशुबलि के लिए कोई स्थान नहीं है ।
आगमशास्त्र में तांत्रिक साधना की सिद्धि के लिए पशुबलि के महत्त्व को रेखांकित किया गया है । काली को तांत्रिक अपनी आराध्य देवी मानते हैं । उल्लेख मिलता है कि प्राचीनकाल में तांत्रिक अपनी आराध्य देवी मानते हैं । उल्लेख मिलता है कि प्राचीनकाल में तांत्रिक मानवबलि दिया करते थे । आजकल साधना के अंत में साधक काली को बकरे की बलि देते हैं ।
शक्ति देवियों की आराधना तीन प्रकार से की जाती है--सात्विक, राजस और तामस। निस्वार्थ और कामनारहित की जाने वाली आराधना सात्विक होती है । इसमें पशुबलि विधान नहीं है । राजस आराधना स्वार्थवश की जाती है । आराधक यश और संपन्नता की इच्छा से आराधान करता है । स्वार्थपूर्ति के लिए वह पशुबलि देने से भी नहीं हिचकता । तांत्रिकों और अघोरियों में तामस आराधना का विधान है । आराधना के बाद देवी काली को पशुबलि और मदिरा चढाते हैं और स्वयं मांस और मदिरा का सेवन करते हैं ।
। ।।जय श्री राम जी ।। 

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