भोजन को भगवान के भोग क्यों लगाते हैं?
नास्तिक लोग कहते हैं कि जब अन्न ब्रह्म है तो भोजन को भगवान के भोग क्यों लगाते हैं। शास्त्रकार कहते हैं- अन्न विष्टा, जलं मूत्रं, यद् विष्णोर निवेदितम्। -ब्रह्म वैवर्त पुराण, ब्रह्मखंड,27/6
विष्णुभगवान को भोग न लगा अन्न विष्टा के समान और जल मूत्र के तुल्य है। ईश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए कि उसकी कृपा से आप और हम जीवित हैं, और यह अन्न-जल हमें मिला है। अतः जैसा भी भोजन मिले इसको प्रेमपूर्वक भगवान का प्रसाद समझकर स्वीकार करना चाहिये।
भारतीय संस्कृति में भोजन करना मात्र पेट भरने का कार्य नहीं। जब भी भूख लगे जैसा भी भोजन मिले, बिना नियम के खा लेना पशुओं का कार्य है। हमारे यहां भोजन करना भी ईश्वर उपासना के तुल्य पवित्र कार्य है। ईश्वर को जूठी वस्तु का, अपवित्र वस्तु का भोग नहीं लगता। भोजन क्या, हमारे यहां अन्न व जल की उपयेागिता भी परखी जाती है। कहा भी है: जैसा खाये अन्न, वैसा होवे मन जैसा पीओ पानी, वैसी होवे वाणी।
विष्णुभगवान को भोग न लगा अन्न विष्टा के समान और जल मूत्र के तुल्य है। ईश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए कि उसकी कृपा से आप और हम जीवित हैं, और यह अन्न-जल हमें मिला है। अतः जैसा भी भोजन मिले इसको प्रेमपूर्वक भगवान का प्रसाद समझकर स्वीकार करना चाहिये।
भारतीय संस्कृति में भोजन करना मात्र पेट भरने का कार्य नहीं। जब भी भूख लगे जैसा भी भोजन मिले, बिना नियम के खा लेना पशुओं का कार्य है। हमारे यहां भोजन करना भी ईश्वर उपासना के तुल्य पवित्र कार्य है। ईश्वर को जूठी वस्तु का, अपवित्र वस्तु का भोग नहीं लगता। भोजन क्या, हमारे यहां अन्न व जल की उपयेागिता भी परखी जाती है। कहा भी है: जैसा खाये अन्न, वैसा होवे मन जैसा पीओ पानी, वैसी होवे वाणी।
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